गज़ल

फुरसत के लम्हें
बहुत फुरसत के हैं लम्हें
बताओं मैं करूँ क्या अब
तुम्हें जो मिलती नहीं फुरसत
हमें फुरसत ही फुरसत है
कभी जब सोचता हूँ मैं
तुम्हारे बारे में अक्सर
मुझे अहसास होता है
मुहब्बत की ये शर्तों पर
जो तुमने तय किया मुझ पर
समझ में है नहीं आता
किया ऐसा है क्यों तुमने
मुझे तेरी जरुरत थी
मगर फुरसत नहीं तुमको
कहीं ऐसा न हो जाये
किसी दिन ऐसा न हो जाये
मैं मसरूफ हो जाऊं
तुम्हें फुरसत ही फुरसत हो
और मेरी जरुरत है
                                            आफ़ताब अहमद अर्शी
                        शोधार्थी, उर्दू विभाग                                                                                                                                       
गज़ल
आ गई याद तेरी शाम से पहले-पहले
फिर से किन्देल[4] जली शाम से पहले-पहले
तेरी खुश्बू जो कहीं दूर खला[5] में गुम थी
दस्तकें देने लगी शाम से पहले-पहले
इस पे क्या जादे सफर बांध के निकले कोई
जो सड़क टूट गई शाम से पहले-पहले
सुनने लगती है तेरे पाँव की आहट अक्सर
दिल की सुनसान गली शाम से पहले-पहले
बल्ब तो सारे मकानों में हुए है रौशन
मोम बत्ती ही बुझी शाम से पहले-पहले
रेत सी भर गई आँखों में हमारी आखिर
जाने क्या बात हुई शाम से पहले-पहले
ऐसा लगता है कहीं रेल रूकी है मसऊद
दूर सीटी बजी शाम से पहले-पहले
मूल लेखक-मसऊद जाफरी
अनुवादक- शरीफ अहमद खान
शोधार्थी, उर्दू विभाग,


शहर में आके बसने वाले
शहर में आके बसने वाले
बसने लगते है यहीं
यहीं कहीं जाने अनजाने शहरों में
अपनों को भूले, अपनेवालों को भूले
मानो कुछ लेन-देन ही नहीं उनसे
भूल आते है
वो माँ जो बेचैन रहती
गर वो जरा भी देर घर लौट आते
वो बाप की बेचैनी और प्यार का गुस्सा
भूलकर सब अहसान उनके
बुढ़ापे में अकले छोड़ आते है ये
शहर में आके बसनेवाले

छप्परबन सजाऊदिन निजामोदिन (शुजा)
शोधार्थी, तुलनात्मक साहित्य

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